लौकी की सब्जी खिलाई और रातभर जंगल में घुमाते रहे नक्सली… माओवादियों से छूटे लक्ष्मण की आपबीती, जानिए कैसे पहुंचे घर !
पंकज दाऊद @ बीजापुर। प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना में कार्यरत कार्यालय सहायक लक्ष्मण परतागिरी (30) को अपहर्ता नक्सलियों ने 11 नवंबर की रात अगवा करने के बाद रात में भात और लौकी की सब्जी खिलाई, फिर 12 नवंबर को पौ फटने के पहले तक जंगल में आंख में पट्टी बांधने रातभर घुमाया।
भट्टीपारा निवासी लक्ष्मण परतागिरी ने अपनी आपबीती सुनाते कहा कि सब इंजीनियर अजय रौशन लकड़ा के साथ वे एक अन्य अधिकारी की बाइक से 11 नवंबर की दोपहर साढ़े 12 बजे कार्यालय से निकले और सड़क निरीक्षण करने 5 किमी दूर गोरना गांव पहुंचे। जब वे निरीक्षण कर लौटने लगे तब 10 से 12 नक्सली सादे कपड़े में आ गए।

तीर धनुष एवं कुल्हाड़ी पकड़े इन माओवादियों ने सबसे पहले बाइक की चाबी, पर्स और मोबाइल रख लिए। ये नक्सली 20 से 25 साल की आयुवर्ग के थे। यहां सब इंजीनियर और उनकी आंखों में पट्टी बांध दी गई। गोरना गांव से ही दोनों को अलग कर दिया गया।
नक्सली उसे कहां ले गए, ये पता नहीं चला क्योंकि आंख में पट्टी बंधी हुई थी और स्याह अंधेरा था। जंगली रास्ता होने से दिशा का अनुमान भी नहीं हो सका।
नक्सलियों ने लक्ष्मण से गोरना आने का कारण समेत सभी जानकारी ली। एक स्थान पर रात करीब साढ़े 8 बजे नक्सलियों ने उन्हें भोजन दिया। भोजन में भात और लौकी की सब्जी थी। फिर नक्सली उसे जंगल में ले गए और घुमाते रहे। सुबह पौ फटने से पहले तीन बजे वे एक स्थान पर रूके और वहां कुछ देर विश्राम किया। उठने के बाद फिर से पूछताछ हुई।
इस बीच लक्ष्मण की धर्मपत्नी श्रीमती सत्यवती परतागिरी 12 नवंबर को गोरना गांव गईं और ग्रामीणों से मुलाकात की। उन्होंने ग्रामीणों के माध्यम से उनके पति को मुक्त करने की अपील नक्सलियों से की। नक्सलियों ने उन्हें शाम 6 बजे मुक्त कर दिया। इसके लिए सत्यवती ने अपहर्ताओं का आभार माना है।
एक रौशनी दिखाई दी
नक्सलियों ने 12 नवंबर की शाम लक्ष्मण को तब मुक्त कर दिया, जब अंधेरा हो चुका था। इसके पहले नक्सलियों ने उनके साथ कोई मारपीट नहीं की और ना ही अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया।
लक्ष्मण के मुताबिक, नक्सली उन्हें ऐसे स्थान पर छोड़कर चले गए, जिस स्थान के बारे में उन्हें कुछ भी पता नहीं था। घना अंधेरा और जंगल। उन्होंने एक ओर चलना शुरू किया। पगडण्डी का भी पता नहीं चल रहा था।
कभी वे जंगल में घुस जाते तो कभी पानी भरे खेत में उनके जूते भीग गए थे। वे चलते रहे। तभी उन्हें एक ओर से कुछ रौशनी दिखाई दी। तब वे रौशनी की ओर बढ़े। ये बासागुड़ा गांव था। यहां से वे पामलवाया पहुंचे, फिर एक व्यक्ति की मदद से बीजापुर आए।
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