Pretshila Parvat, Pitru Paksh 2024, Pret ka Pahad, Travel, Mysterious Place: पितृपक्ष का मेला चल रहा है। पितृ पक्ष में लेकर धाम की मुख्य वेदियों में एक प्रेतशिला पिंड वेदी पर पिंडदान का विधान है।
आखिर इस शिला का नाम प्रीत शिला क्यों है इस पर कई तरह के रहस्य बने हुए हैं। हालांकि इस प्रेत शिला से अजीबोगरीब आवाज सुनाई देती है।
प्रेत शिला को प्रेस्टन का पहाड़ कहा जाता है। मान्यता है कि पहाड़ के चट्टानों के क्षेत्र में आकर मृत्यु वाले पितरों का वास होता है। वहीं देर शाम होने के बाद लोग इस पहाड़ पर जाने से हिचकते हैं। देर शाम के बाद इस पहाड़ पर कोई नहीं जाता है।
यहां वास करते हैं अकाल मृत्यु वाले पितर
अकाल मृत्यु वाले पितर यहां वास करते हैं। उनकी तरह-तरह की आवाज यहां सुनाई देती है। मान्यताओं के मुताबिक यह वह पिंड बेदी है।
जहां ब्रह्मा जी ने अपने अंगूठे से तीन लकीर खींची थी। यहां ब्रह्मा जी के चरण चिह्न भी है। इस चिन्ह धर्मशिला के रूप में जाना जाता है। बिहार के गया में स्थित यह पिंड बेदी पिंडदान के काम आती है।
प्रेतशिला में सत्तू उड़ने का विधान
वही मान्यता के तहत प्रेतशिला में सत्तू उड़ने का विधान है। यहां पिंडदान और सत्तू उड़कर अकाल मृत्यु से मरे पितर को मोक्ष दिलाने की मान्यता मानी गई है।
बता दे कि यहां सबसे ऊंची चोटी पर प्रेत वेदी यानी कि जो चट्टान है। उसमें दरार है वह पिंडदान और सत्तू उड़ाने से पितरों के लिए स्वर्ग का मार्ग खुलता है।
इस पहाड़ को प्रेत का भी पहाड़ कहा जाता है जबकि याम देवता यह इस पहाड़ पर निवास करते हैं। यहां उनकी एक मंदिर भी बनी हुई है।
कहा जाता है “प्रेतों का पहाड़”
प्रेत शिलवेदी को प्रेतों का पहाड़ कहा जाता है। माना जाता है कि अकाल मृत्यु जैसे जलने से, आत्महत्या से, एक्सीडेंट से या किसी के द्वारा की गई हत्या से जो अकाल मृत्यु के शिकार आत्माएं होती है।
उनका वास इसी प्रेत पर्वत पर होता है। यही वजह है कि इन्हें भूतों का पहाड़ भी कहा जाता है। कहा जाता है कि यहां प्रेतशिला के चट्टानों के क्षेत्र में अकाल मृत्यु से शिकार पितर रहते हैं।
मृत्यु दो तरीके से होती है एक प्राकृतिक और एक अप्राकृतिक यानी अकाल मृत्यु। ऐसे में इस प्रेत पर्वत पर उनका वास माना जाता है।
संध्या के बाद इस पहाड़ पर नहीं जाता कोई
अप्राकृतिक मृत्यु प्राप्त करने वाले इस पर्वत पर रहते हैं। जिस कारण से इसे भूत का पहाड़ कहा जाता है और संध्या के बाद कोई भी व्यक्ति इस पहाड़ पर नहीं जाता। सिर्फ पुजारी साधु संत को ही संध्या के बाद यहां देखा जा सकता है।
वही पिंडदान करने के बाद जब सत्तू उड़ाई जाती है। तब इस पर्वत पर तीन से चार बार परिक्रमा किया जाता है और सत्तू को चट्टान की दरार में उड़ाया जाता है।
चट्टान की दरार में जब सत्तू डालकर अपने पितर के प्रेत योनि से मुक्ति की कामना की जाती है तो पितर को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और आत्मा अकाल मृत्यु से मुक्त होती है।
बता दें कि बिहार के गया में 676 सीढ़ियां चढ़कर लोग प्रेतशिला वेदशीला के लिए पहुंचते हैं और जो यह सीढ़ियां चढ़ने में असक्षम होते हैं, उन्हें यहां के स्थानीय मजदूर डोली के सहारे पर्वतों की चोटियों तक पहुंचाते हैं।
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